Saturday, May 15, 2010

अधमरा इन्सान

अरे तू किसान है या
या एक अधमरा इन्सान
तू उगाता तो बहुत है
पर खाता बड़ा कम
तेरा दिल तो बहुत बड़ा है
पर घर बड़ा ही छोटा

जरा देख तेरे फसलो की दलाली करने वालो को
तोंद लटक के घुटनों को छूती है
और तेरा पेट तेरी रीढ़ को छूता है

दीन भर तू धुप में तपता है
और रात को पेट की आग तुझे जलाती है
तुने सबके भंडारे भर दीये
पर अपना ही खाली छोड़ दीया




Monday, May 10, 2010

आम के बाग़

अरे तुने आम के बाग़ ही क्यों लगाये
उगाना ही था तो गाज़र मुली उगाता
तुने हमेशा कल की ही सोची
कभी अपने आज की भी सोचता

तेरे आम को तो तेरे बच्चो ने खाया
अरे तुझे कया मिला
गाज़र मुली तो तू ही खता

तुझे मारने के लिए सुखा बाढ़ या
बिन मौसम बरसात ही कया कम थे
तुने खुद को सूली पर भी लटकाया

फिर भी तुने कल की ही सोची
शायद इसीलिए तो हम जिन्दा है
सोचता हु हम जैसा अगर तू भी होता
तो हम जैसो का कया होता

इसीलिए तो तुझे बार बार प्रणाम करता हु

और अब मैं भी आम के बाग़ लगाता हु