Wednesday, June 2, 2010

रास्ते का पत्थर

मिटटी के घरोंदे
पलपल में गिरते टूटते रहते हैं
महलो की दीवारे अक्सर
तन्हाई से बाते करती है
कागज के फूलो से भी भला
कही खुशबु आती है
आधुनिकता के इस दौर ने
हर परिभाषा बदल दी है
बेटा बाप का बाप बेटे का
दुश्मन बन बैठा है
रश्ते में पड़े पत्थर
को ठोकर जरुर मारनी है
अरे रस्ते में पड़ा ही सही
गिरा के सही गलत का एहसाश तो करता है
ठोकर मारकर उसे क्यों
भटकाआते हो
उसका तो काम ही है
रस्ते में पड़े रहना

3 comments:

  1. उसका तो काम ही है
    रस्ते में पड़े रहना
    ठोकर तो नहीं हाँ उसे रास्ते से थोड़ा किनारे कर देने की जरूरत है. सुन्दर रचना.

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