मिटटी के घरोंदे
पलपल में गिरते टूटते रहते हैं
महलो की दीवारे अक्सर
तन्हाई से बाते करती है
कागज के फूलो से भी भला
कही खुशबु आती है
आधुनिकता के इस दौर ने
हर परिभाषा बदल दी है
बेटा बाप का बाप बेटे का
दुश्मन बन बैठा है
रश्ते में पड़े पत्थर
को ठोकर जरुर मारनी है
अरे रस्ते में पड़ा ही सही
गिरा के सही गलत का एहसाश तो करता है
ठोकर मारकर उसे क्यों
भटकाआते हो
उसका तो काम ही है
रस्ते में पड़े रहना
sundar kavita
ReplyDeleteउसका तो काम ही है
ReplyDeleteरस्ते में पड़े रहना
ठोकर तो नहीं हाँ उसे रास्ते से थोड़ा किनारे कर देने की जरूरत है. सुन्दर रचना.
bahut khub
ReplyDeleteachha likha he aap ne